उन दिनों की बात
बात तब की है जब बहोत छोटी थी मै ठीक से बोल भी नहीं पाति थी जब हर बात दिल से हुआ करती थी बस लबो पे आके लडखडाती थी दुनिया की समझ खा़स नहीं थी मुझको हर कोई अपना लगता था साथ जो भी खेलता था मेरे इंसान अच्छा लगता था शायद यही नासमझी में मैं कुछ समझ नहीं पायी हंसते हंसते रो जाती क्यों थी यह बात जान नहीं पायी कयूं हर बार छुपन छपाई का खेल मेरे साथ खेला जाता था कयूं हरदफा वो मुझे अपने साथ एक कोठरी में छिपाता था कयूं उसकी गोदी में बैठ वो इधर उधर हाथ घुमाता था कयूं वो बार-बार मेरी फ्रॉक के नीचे से अपना हाथ घुसाता था भैया भैया बोलती थी उसको वो दुकान पे काम करता था मगर क्या पता था मुझे की वो भाई बेहेन का रिश्ता गंदा करता था दिला तो दू सजा उसको मगर उसकी शक्ल तक याद