बेचैन मन : एक कविता
खामोश इतनी की,
शोर मचाने की तलब हैं मन
आस नहीं है फिर भी
कैसी तलाश में है यह कदम।
खुश भी हूं पर
उस मुस्कुराहट को ढूंढ रहे हैं हम
पत्थर समझ लेते हैं मुझे मेरो हो अपने
बर्फ से पिघले है पर बेखबर है सब
मेरे अल्फ़ाज़ में भी जिक्र नहीं
बस एक वैसा किस्सा है हम।
और ऐसा परिंदा भी नहीं हूं ,
जो कुछ जख्मों से दम तोड़ दे हम
शुरुआत भले ही अच्छो ना हो
पर इतनी आसानी से कलम नहीं छोड़ेंगे हम!
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