गुज़रा वो दौर
गुज़रा वो दौर
पहले का प्यार कितना मासूम था ,
छत पर किताब के आड़ से उसे झुक झुक कर देखना ,
कभी पसंदीदा गाने के कुछ बोल गुनगुनाना ताकि वो सुने और शर्मा के हस दे ज़रा ।
गुजरा वो दौर ।
पहले के प्यार कितना मासूम था ,
जब लोग चिट्ठियाँ लिखा करते थे ,
कभी वो चिट्ठी के बोल तो कभी उसके जवाब का इंतेज़ार
करना ।
गुज़रा वो दौर ।
पहले का प्यार कितना मासूम था ,
बस एक दूसरे का हाथ थाम कर चलना उन ख़ामोश
गलियों में ,
और चुपके से कोई गुलाब का फूल उसकी
चोटी में मालना ।
गुजरा वो दौर ।
पहेले का प्यार कितना मासूम था,
तब इंसान के तनख़्वा की नहीं इंसान की कदर होती थी ,
तब तो सिले हुए कपड़े , पैदल चलने का जमाना था ,
बत्तियाँ या तो ख़ैर थी पर candle light वाला dinner तो जाने रोज़ का ही था ,
गुजरा वो दौर ।
अब तो प्यार !!!!! .... ख़ैर छोड़िये फिर कभी
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वो
"ये फिजा क्यों बेवक्त मुस्कुरा रही है,
यार जरा देखो क्या वो फिर से आ रही है।
यूं तो बंजर पड़ा है सारा जहां हमारे लिये,
लेकिन ये चांदनी क्यों महका रही है।।
यार जरा देखो क्या वो फिर से आ रही है।।
इश्क इब्दिता इबादत नाम थे उसके,
दिल के महकाने मे पैगाम थे उसके।
जिस्म को छूकर रूह मे उतर जाना,
नश्तर सी नज़रें जाम थे उसके।
यार आज फिर जुनूनियत सी छा रही है,
हां वो फिर से आ रही है।।"
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एक दिन बसंत को आना है
जब हंस बने मन उड़ता है
आशाओं के आकाश में
हर अदा नई सी लगती है
जब प्रकृति के अंदाज़ में
जब धूप धुली सी लगती है
जब सूरज आंखें मलता है
जब ऋतु सांवरी सजती है
जब मौसम रंग बदलता है
ये जीवन चलता है कैसे
ये बसंत हमे बतलाता है
ये कहता है हर वो पत्ता
जो पतझड़ में झड़ जाता है
कितनी भी सुष्क हवाएं हों
टहने कितने भी सूखे हों
फिर से होगी शुरुआत नई
हर डाली को भर जाना है
एक दिन बसंत को आना है
एक दिन बसंत को आना है
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