हामारे हिन्दूंस्तान

हामारे  हिन्दूंस्तान
शान-ए-भारत को दिल में 
बड़े मान से रखती हूँ
और इसके वास्ते 
हथेली पर जान रखती हूँ,

जहाँ की मिट्टी में बसती 
हमारे वीरों की शौर्य गाथा
ऐसे भारत को सिर झुकाकर 
प्रणाम करती हूँ !

गीता और कुरान के बीच 
जहाँ है शांति अपार
ऐसे सद्भावना और सौहार्द पर
 अभिमान करती हूँ,

पुरातन संस्कृति को समेटे 
इस नूतन आर्यवर्त के और 
माँ भारती के आँचल में खड़े
इस साम्राज्य के सम्मान को
न पहुँचे ठेस कभी, 
इस बात का ध्यान रखती हूँ!

शंखनाद के बीच सवेरों ने 
और अजान के बीच शामों ने
किया है मेरे मन को प्रफुल्लित,
ऐसे भारत में मिला जन्म मुझे, 
इसलिए उस ईश्वर का मैं  
सहृदय धन्यवाद करती हूँ!

जिसकी धरती और गगन 
 है पहचान मेरी, 
उसके तेजस्व का मैं दिल से 
अदब और सम्मान करती हूँ!
अद्वितीय और मनोरम है 
विश्व के सिरमौर की संरचना,

लहलहाते खेतों का, 
बहती नदियों का, 
बदलते मौसम का
और दुल्हन बनी इस धरा का 
मैं ऊँचे स्वर में बखान करती हूँ!

जिसके मस्तक पर होगी 
अपराजय की परिभाषा,
ख्वाबों में ऐसा मुस्तकबिल 
हिंदुस्तान का रखती हू
******


जुल्फों 

काली घटा जुल्फों को घेरे 
जमाल के समंदर को
दे रही है पहरा 
कलख नूर के शम्मा को
गंदुम के रंग सा ये चेहरा
गुल होठों का ये लहज़ा
मुस्कान की सफीना 
जो करे आगाज़
ख्वाइश- ए - दीद का
ज़मुर्रद की निगाहे
रफाकत उन बालिओं की
हूसन है तो बहिश्त या
आजमाईश है वफात की

*****


कभी यूं ही 

कभी यूं ही मिल के 
रुसवा हो जाना, 

ख़्याल करना मेरा और 
ख़फा हो जाना।

बनना बदरा बहार,
बारिशों से बयां हो जाना।

मेरे चिलमन में आके,
चराग़ों की शमॉं हो जाना।

पलट कर छांव को,
धूप की हया हो जाना।

बिखरती रौशनी है,
शबनम फिर, फ़ना हो जाना।

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कभी उसकी, कभी अपनी
गज़लें सुना करता था,
सिसकियां भी,
कभी उसकी, कभी अपनी

आह, बढ़ती गई
चाह भी
वो तड़पन भी, समर्पण भी

सब अपनी मशवरा देते थे
हकिदत भी
मैं संभला, और फिर फिसला

बेतहाशा भागता,
कई मील दूर,
एक पुकार, फिर देती मार

वो तफुलियत समझती
अक्लमंद समझते हमाकत
तुम इसे रोग - ए - दिल कहो
या खिदमतगुजारी !



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